झारखंड में बौद्धधर्म

इतिहास एवं संस्कृति के लेखक डॉ . विरोत्तम ने गौतम बुद्ध की जन्म स्थली छोटानागपुर को माना है । उसने पलामू क्षेत्र के उन स्थानों का उल्लेख किया है जो उसके विचार से बुद्ध के जीवन से जुड़े थे । इस मान्य इतिहासकार ने बुद्ध की अन्तिम यात्रा के मार्ग अस्तिवन से कुशीनगर को लातेहार से सतबरवा वाला मार्ग बतलाया है । लेकिन पुरातात्विक और साहित्यिक साक्ष्य विद्वान लेखक के विचार के विरूद्ध हैं । वैशाली तथा अन्य स्थलों में हुए उत्खन्नों से हुए प्राप्त साक्ष्य इस मत का समर्थन नहीं करते लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि बौद्ध दर्शन का गहरा प्रभाव छोटानागपुर पर न पड़ा होगा । वर्तमान समय में भी इस क्षेत्र के अनेक स्थलों पर बौद्ध धर्म से जुड़े अनेक अवशेष बिखरे पड़े हैं । पलामू के मूर्तिया नामक गांव में अनेक बौद्ध अवशेष प्राप्त हुए हैं , जिन्हें राँची विश्वविद्यालय के एम.ए. ( इतिहास ) विभाग ) के संग्रहालय में देखे जा सकते हैं । इसके अतिरिक्त करुआ ग्राम में भी एक बौद्ध स्तुप है।

धनबाद बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था । अभी भी बुद्धपुर और डाल्मी में अनेक बौद्ध स्मारक शेष पड़े हैं । टी . ब्लाश ने यहाँ अनेक बौद्ध अवशेष देखे थे । बेंगलर के अनुसार यह अवशेष दसवीं शताब्दी के हैं । दाल्मी स्वर्णरेखा नदी के उत्तरी तट और बुद्धपुर कंसाई नदी के तट पर अवस्थित । बुद्धपुर में एक पहाड़ी ढलान पर बुद्धेश्वर मंदिर भी है जो ध्वस्त स्थिति में है । पाकबिगरा ( पुरुलिया ) में 1865 ई . में आर . सी . बोकन ने वहाँ अनेक बौद्ध खंडहर देखे थे । यहाँ बेंगलरन ने कई बौद्ध चैत्यों के अवशेष भी पाये थे । वर्तमान हजारीबाग जिले में ग्रेड - ट्रैक रोड पर बरही के निकट एक गाँव सूर्यकुंडा में चार गर्न जलकुंडों के अलावे एक प्राचीन देवस्थल भी है । 1918 ई . में एफ . एम . हौलो ने यहाँ पाँच तरासे प्रस्तर देखे थे जिनमें से एक पर बुद्ध की आकृति उत्कीर्ण थी । इसी प्रकार राँची जिले के खूँटी ( 23 वां घोषित जिला ) से 3 कि.मी. दक्षिण पश्चिम में एक गाँव बेलवादाग है । यहाँ एक टीला बौद्ध विहार के अवशेष की तरह मालूम पड़ता है । इंटों का आकार मौर्य युगीन विशेषता धारण की हुई है।

प्रसिद्ध इतिहासकार और पुरातत्ववेता एस . सी . राय ने इन इंटों का औसत आकार 17 " गुणा 10 " गुणा 3 " मापी थी । यहाँ यह उल्लेख समीचीन होगा कि सांची स्तूप के इंटों का आकार भी 16 " गुणा 10 " गुणा 3 " है । झारखंड में बौद्ध धर्म के अन्य अवशेषों और प्रमाणों में एक तथ्य यह है कि राँची - मूरी रेल मार्ग पर गौतम धारा स्टेशन स्थित है । हाल के वर्षों तक जोन्हा जल प्रपात पहुँचने वाले मार्ग पर भगवान बुद्ध की एक प्रतिमा थी । हाल में ही गुमला जिले के एक कटुंगा नामक ग्राम में बुद्ध की प्रतिमा प्राप्त हुई है । यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि पृथक राज्य झारखंड के अस्तित्व में आने के पश्चात् भी पुरातत्व विभाग द्वारा पंजीकृत किये जाने के बावजूद यह प्रतिमा अभी भी उपेक्षित पड़ी है।

धनबाद जिले के इचागढ़ में एक उच्च विद्यालय की दीवार पर बौद्धों की देवी तारा की एक सुन्दर प्रतिमा काफी दिनों तक उत्कृण रही । 1984 ई . में इसे राँची संग्रहालय ला कर सुरक्षित रखा गया । यह प्रतिमा एक सिंहासन पर अवस्थित है । इटखोरी ( स्थित ) भद्रकाली मंदिर परिसर में भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में • सातवीं सदी की चार दुर्लभ प्रतिमाएं मिली हैं । इन विलक्षण प्रतिमाओं में बुद्ध मुकुट ' पहने तथा अन्य में मुस्कुराते हुए तपस्यालीन हैं । पटना से सुविख्यात पुरातत्ववेता व आर्किटेक्ट रामजी प्रसाद तथा इतिहासकार व चतरा कॉलेज के प्राचार्य डॉ . मुहम्मद इफ्तेखार आलम के अनुसार इन मुद्राओं में बुद्ध की ऐतिहासिक प्रतिमाएं दुर्लभ है । • प्रतिमाएँ सैंड स्टोन पत्थरों से तराशकर बनायी गयी है । ये प्रतिमाएं पालयुग से पूर्व कनिष्क से लेकर हर्षबर्द्धन काल की है । इनमें दो प्रतिमाएं बुद्ध की एक - एक फीट के अलग - अलग पत्थरों में उत्कीर्ण है । एक में बुद्ध हाथ पर हाथ घरे मुकुट पहने ध्यानरत हैं । 

दूसरी में मुकुट पहने भगवान बुद्ध हाथ जोड़े तपस्यालीन हैं । हाथ जोड़कर मुकुट पहने बुद्ध की प्रतिमा अत्यंत ही दुर्लभ है । इस प्रतिमा में बुद्ध का दायां हाथ वरदानदायी तथा बायां पूजा की मुद्रा में है । इसी पत्थर के सबसे ऊपर बायीं तथा दायीं तरफ में बुद्ध की दो प्रतिमाएं उत्कीर्ण है , जो ध्यानरत हैं । इसी जैसा चार तेमाएं उक्त एक अन्य पत्थर एक फीट का मिला है , जिसमें के समान में है । डॉ इफ्तेखार आलम का मानना है कि ये प्रतिमाएं अपने आप में अनोखी है । आलम के अनुसार मुकुट पहने कांस्य की कई प्रतिमाएं बोधगया में है , जिसे 60-70 के दशक के दौरान थाईलैड वासियों ने स्थापित किया था , मगर यह ऐतिहासिक नहीं है । आलम ने तथ्यों के आधार पर बताया कि सैंड स्टोन का प्रयोग कनिष्क से लेकर हर्षवर्द्धन काल में किया जाता था । गोमेद पत्थर पालयुग में पत्थर में लगाये जाने लगे । उसी काल में 738 से 10 वीं शताब्दी के बीच मां भद्रकाली की प्रतिमा बनी ऐसा उन्होंने कहा । आर्किटेक्ट रामजी प्रसाद बताते हैं कि मुकुट पहने बुद्ध की सिर्फ एलोरा में एक - दो प्रतिमा है । इससे स्पष्ट होता है कि ये प्रतिमाएं विलक्षण हैं । विशेषज्ञों की नजर में बलुआ पत्थर से बनी ये प्रतिमाएं सातवीं सदी की है ।

छोटानागपुर में बौद्ध धर्म के प्रचार तथा प्रसार तथा उपरोक्त अवशेषों के निर्माण का कार्य बुद्ध के समकालीन अर्थात ईसा पूर्व छठी शताब्दी में ही प्रारंभ हो गया होगा । बुद्ध के महाधर्म चक्र प्रवर्तन ( बौद्ध दर्शन में उल्लेखित बुद्ध का प्रथम उपदेश ) के बाद बुद्ध 45 वर्षों तक मध्य देश के जनपदों में बौद्ध धर्म का प्रचार करते रहे थे । इस मध्य देश में कुरूक्षेत्र से संथाल परगना तथा हिमालय से विन्ध्य श्रेणी तक का क्षेत्र शामिल था । यह मानने का एक तार्किक आधार बन सकता है कि इस भ्रमण काल में भगवान बुद्ध छोटानागपुर भी आए हों । चन्द्र गुप्त मौर्य इस क्षेत्र से अनजान नहीं था । इसकी पुष्टि अर्थशास्त्र के अनुवादक आर . शामशास्त्री ने भी किया है।

यहाँ की जनजातियों पर सम्राट अशोक का नियंत्रण रहा होगा क्योंकि अशोक द्वारा जारी शिलालेख 13 में इस क्षेत्र का वर्णन आटविक जातियों के लिए किया गया जो जनजातीय लोग ही थे । प्राचीन भारत के महान इतिहासकार दामोदर राव भंडारकर ने लिखा है कि आटवी प्रदेश बघेलखंड से उड़ीसा के समुद्री तटीय प्रदेशों तक फैला था । इस क्षेत्र में छोटानागपुर का क्षेत्र भी शामिल रहा होगा । इसका एक प्रमाण यह भी है कि उड़ीसा की सीमावर्ती प्रदेशों में निवास करने वाले जनजातियों के विषय में जानकारी अशोक के कलिंग अभिलेख में मिलता है । अशोक द्वारा धर्म प्रचार के लिए । नियुक्त पदाधिकारियों को आटविक जनजातियों के बीच भी भेजा था । इस दल का प्रमुख बौद्ध विद्वान रक्षित था । प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य बुद्धघोष ने रक्षित द्वारा उपदेशित प्रदेश को वनवाश कहा है।

मौर्योत्तर युग के प्रमुख शासक कनिष्क का छत्रप ( प्रांतपति / गवर्नर ) वंशफर बिहार में शासन कर रहा था । उसने पुलिन्दो जैसी जनजाति को बौद्ध धर्म में शामिल किया । सौभाग्य से कनिष्क के सिक्के राँची जिले से भी प्राप्त हुए हैं । ऐसा मालूम पड़ता है कि समस्त आटविक क्षेत्र पर उसका नियंत्रण था । लेकिन मगध से दक्षिण की ओर जनजातीय प्रदेशों में जब समुद्रगुप्त का विजय अभियान प्रारंभ हुआ तब यहाँ बौद्ध धर्म का हास स्वाभाविक था क्योंकि प्रायः सभी गुप्त शासकों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भागवत धर्म के प्रश्रय दाता थे । जब बंगाल के प्रमुख शैव शासक शशांक का बिहार तथा उड़ीसा पर अधिकार हो गया तब उसने बौद्धों का उत्पीड़न शुरू कर दिया । इसका उल्लेख चीनी यात्रियों और बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है । 

लेकिन हर्षवर्धन और भाष्कर वर्मन जैसे शासकों द्वारा दबाए जाने पर शशांक ने अपनी राजधानी पौंड्रवर्धन खाली कर दी । शक्ति धर्मावलंबी शशांक की बौद्ध स्थलों और स्मारकों के प्रति इतनी उग्रता बढ़ गई थी कि उसने छोटानागपुर के सभी बौद्ध केन्द्रों को नष्ट कर दिया। इसका उल्लेख प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रावृतांत में भी मिलता है । लेकिन बंगाल के प्रमुख पाल शासकों ( गोपाल और धर्मपाल ) के समय में बौद्धों का एक तांत्रिक रूप वज्रयान छोटानागपुर प्रदेशों में फलते - फूलते रहे । इसी समय रजरप्पा की छिन्नमस्तिष्के शक्ति पीठ की स्थापना भी हुई । ऐसा माना जाता है कि छिन्नमस्तिके बौद्ध वज्रयोगिनी का ही रूप है । बाद के तुर्क आक्रमणों ( बख्तियार खिलजी के आक्रमण ) के कारण बंगाल में बौद्ध मत का लगभग विनाश हो गया और छोटानागपुर में हिन्दुत्व के प्रचार - प्रसार में बौद्ध धर्म विलुप्त सा हो गया।

झारखंड में बौद्धधर्म झारखंड में बौद्धधर्म Reviewed by Rajeev on जनवरी 29, 2023 Rating: 5

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