राजनीतिक विज्ञान: बहुलवाद अथवा बहुलवादी सिद्धान्त

राज्य के कार्य क्षेत्र की स्थापना के साथ - साथ राज्य की शक्ति और अधिकारों में भी असीमित वृद्धि हुई है । समस्त शक्ति राज्य में ही केन्द्रित होती जाती है । उसे नागरिक जीवन में हस्तक्षेप के अवसर प्राप्त होते हैं । शक्ति के बल पर उसे अपने आदेशों का पालन कराने की क्षमता प्राप्त होती है । अन्य सभी समुदायों का नियमन तथा नियन्त्रण उसी के हाथों में सुरक्षित रहता है । व्यावहारिक रूप में तो असीमित शक्ति राज्य में केन्द्रित हो गई है , सिद्धान्त रूप में प्रभुता को असीमित , अदेय , अविभाज्य और अनन्य आदि गुणों से युक्त कर राज्य को सर्वोच्च मानव समुदाय के रूप में व्यक्त किया गया है । परिणामस्वरूप राजनीतिक एकलवाद का अभ्युदय हुआ। 

इस राजनीतिक एकलवाद के विरुद्ध राजनीतिक बहुलवाद ने चुनौती दी और आर्थिक क्षेत्र से समष्टिवाद के आर्थिक एकतावाद का विरोध किया गया । यह प्रतिपादित किया गया कि राजनीतिक दर्शन में राज्य की प्रभुता का सिद्धान्त ' शुष्क एवं निष्फल ' है । इस प्रकार बहुसमुदायवाद राजनीतिक एकलवाद का विषय है तथा राज्य की सर्वोच्च स्थिति के विरुद्ध चुनौती है।

हैसियो ने लिखा है , " बहुलवादी राज्य एक ऐसा राज्य है जिसमें सत्ता का केवल ही स्रोत नहीं है । यह विभिन्न क्षेत्रों में विभाजनीय है , इसे विभाजित किया जाना चाहिये । ”

लास्की के शब्दों में , " समाज के ढाँचे को पूर्ण होने के लिये उसे संघात्मक होना चाहिये । " 

गैटेल के अनुसार , " बहुसमुदायवादी राज्य को महत्व नहीं देते , सम्प्रभुता की एकता के सिद्धान्त का विरोध करते हैं तथा सामाजिक नियन्त्रण में अन्य संस्थाओं के लिये एक बड़े हिस्से की मांग करते हैं । " 

बहुलवादी राज्य का सिद्धान्त ( Principles of Pluralist State ) - बहुलवादी विचारकों ने राज्य सम्प्रभुता को नहीं माना है । वे राज्य को अन्य समुदाओं के समान ही एक समुदाय मानते हैं । उन्होंने अपने दर्शन के निम्नलिखित सिद्धान्त माने हैं-

( 1 ) विभिन्न समुदाओं का मानव जाति के सामूहिक जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान है । ये समुदाय उसी प्रकार अपने कार्यों में स्वतन्त्र है जिस प्रकार कि राज्य।

( 2 ) आज हमारे जीवन का लक्षण सामूहिक है।  

( 3 ) विकेन्द्रीयकरण की नीति को आधार मानकर स्थानीय जीवन का पुनः संगठन होना चाहिये । 

( 4 ) राज्य तथा समूहों के हितों में समान नहीं पाई जाती। 

( 5 ) समुदाओं एवं संघों का निर्माण किया जाना चाहिये। 

( 6 ) राज्य को अमर्यादित सत्ता प्राप्त होती है । लिण्डसे का कथन है , " यदि इन तथ्यों पर दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट दीख पड़ेगा कि प्रभुता सम्पन्न राज्य का सिद्धान्त अमान्य हो चुका है।" 

( 7 ) राज्य का सम्प्रभुता सम्बन्धी सिद्धान्त व्यर्थ एवं सारहीन है ! 

( 8 ) राज्य की सम्प्रभुता के कानून का त्याग करना ही जनता का सर्वाधिक हित करना है। 

( 9 ) गैर राजनीतिक संस्थायें एवं समुदाय राज्य से कोई भी शक्ति प्राप्त नहीं करते हैं , " किसी भी समाज में जो स्थायी संस्थायें एवं समुदाय जन्म लेते हैं उनके व्यक्तित्व वास्तविक होते हैं काल्पनिक नहीं और न वे बाहर से निर्मित होते हैं।" 

( 10 ) प्रत्येक समुदाय की एक सामूहिक चेतना एवं इच्छा होती है जो उसके व्यक्तिगत सदस्यों की इच्छाओं एवं चेतनाओं से भिन्न है। 

( 11 ) राज्य को व्यक्ति की भक्ति करने का वहीं तक अधिकार है जहाँ तक उसकी अन्तत्मा सहमत है । लास्की ने कहा है , " मुझ पर सत्ता का दावा उसकी नैतिक अपील की मात्रा में अनुपात में ही उचित है।" 

( 12 ) राज्य अन्तर्राष्ट्रीय निश्चित नियमों के आधार पर क्षेत्र में भी प्रभु नहीं होता है , क्योंकि प्रत्येक राज्य को अन्य राज्यों से अपने सम्बन्ध बनाने पड़ते हैं । एक राज्य का सम्बन्ध दूसरे राज्य से किस प्रकार का हो इसका निर्णय करना किसी एक राज्य के अधिकार में नहीं है।

( 13 ) सरकार वही तक व्यक्तियों से आज्ञा पालन करवा सकती है , जहाँ तक वह लोक सेवा के कार्य करे। लास्की , कोल आदि इसके प्रबल समर्थक थे । बींसवी सदी के प्रथम चरण में इसका प्रतिपादन तीव्रता से हुआ। 

बहुलवाद अथवा बहुलवादी सिद्धान्त की आलोचना 

बहुलवाद की आलोचना निम्न आधारों पर की गई है - 

( 1 ) बहुलवादियों के अनुसार यदि सत्ता का विभाजन अन्य समुदाओं के मध्य किया जाता है , तो इससे अराजकता फैलेगी । ऐसी स्थिति में प्रत्येक समुदाय अपने लिये अलग कानूनों का निर्माण करेगा और उनमें से कई कानून परस्पर विरोधी हो सकते हैं । गिलक्राइस्ट के कथनानुसार , " यदि बहुसमुदायवाद को तार्किक निष्कर्ष तक ले जाया जाये तो इसका अर्थ होगा समाज का विघटन और शान्ति एवं व्यवस्था के स्थान पर विविध समुदायों द्वारा अपनी - अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिये संघर्ष।" 

( 2 ) समुदाय का स्तर राज्य के बराबर नहीं हो सकता । यद्यपि जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विभिन्न समुदाय आवश्यक हैं किन्तु अपने अस्तित्व के लिये ये समुदाय राज्य पर ही निर्भर करते हैं । 

( 3 ) विभिन्न समुदाओं के मध्य उत्पन्न विवादों का निपटारा भी राज्य द्वारा किया जाता है । 

( 4 ) सम्प्रभुता एक पूर्ण इकाई है जिसे विभक्त नहीं किया जा सकता । 

( 5 ) प्रत्येक समुदाय को राज्य के स्तर का मानना भी एक भारी भूल है । राज्य की सदस्यता अनिवार्य होती है जबकि अन्य समुदाओं की सदस्यता ऐच्छिक होती है । 

( 6 ) बहुसमुदायवाद काल्पनिक अद्वैतवादी शत्रु पर आक्रमण करता है । यह सिद्धान्त जिस निरंकुश सम्प्रभुता पर आक्रमण करता है उसका प्रतिपादन हीगल के अतिरिक्त और किसी ने नहीं किया । डॉ ० आशीर्वादम के अनुसार , " बहुसमुदायवादी जिस अद्वैतवादी शत्रु पर प्रहार करते हैं बहुत कुछ सीमा तक वह एक कल्पनात्मक जीव ही है।"

 ( 7 ) प्रो ० घुग्वी तथा क्रॅब के मतानुसार कानून राज्य से ऊपर है क्योंकि कानून ने ही राज्य की रचना की है । ये विद्वान बहुलवाद की इस धारणा को अस्वीकृत करते हैं कि कानून सम्प्रभु के आदेश होते हैं । 

बहुलवाद अथवा बहुलवादी सिद्धान्त का महत्व 

 उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद इस सिद्धान्त के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता । बहुलवाद का महत्व निम्न कारणों से है - 

 ( 1 ) बहुलवाद ने राज्य की सर्वोच्चता के सिद्धान्त को अस्वीकृत किया । 

 ( 2 ) अन्य समुदायों की स्वतन्त्रता पर बल दिया ।

 ( 3 ) बहुलवादियों ने संघात्मक शासन प्रणाली का समर्थन किया । 

 ( 4 ) बहुलवादियों का शक्ति विकेन्द्रीकरण राजनीतिक दर्शन को अमूल्य देन है।

गैटेल के शब्दों में , " बहुलवाद कठोर और सैद्धान्तिक विधानवादिता तथा ऑस्टिन के सम्प्रभुता के सिद्धान्त के विरुद्ध एक सामाजिक और स्वागत योग्य प्रतिक्रिया है।"

मिस फॉलेट ने भी बहुलवाद की प्रशंसा करते हुये लिखा है , " बहुलवादी वर्तमान राज्य की सर्वोच्चता के अधिकार को नष्ट करते हैं । वे संघों के महत्व को स्वीकार करते हैं और उन्हें मान्यता प्रदान करते तथा अपने कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में स्वायत्तता देने की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हैं । वे स्थानीय जीवन को पुर्नस्थापित करने के पक्ष में है।"

निष्कर्ष ( Conclusion ) - सम्प्रभुता के सिद्धान्त की प्रतिक्रिया होते हुये भी बहुलवादी सिद्धान्त को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता । 

मेरियम एवं बर्न्स के अनुसार , " बहुलवादियों के विरोध के बावजूद न तो राज्य की सम्प्रभुता के सिद्धान्त का त्याग किया गया है और न ही इसका त्याग किया जा सकता है।"

डॉ ० आशीर्वादम ने भी सन्तुलित दृष्टिकोण अपनाते हुये कहा , " एक ऐसे सिद्धान्त के रूप में जो सम्प्रभुता के परम्परागत विचारों की ज्यादतियों को ठीक करता है और जिसकी कमियों को पूरा करता है , बहुलवाद एक महत्व पूर्ण सिद्धान्त है । पर जब वह सम्प्रभुता के सिद्धान्त को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न करता है तब यदि व्यर्थ नहीं , तो खतरनाक अवश्य हो जाता है।"

राजनीतिक विज्ञान: बहुलवाद अथवा बहुलवादी सिद्धान्त राजनीतिक विज्ञान: बहुलवाद अथवा बहुलवादी सिद्धान्त Reviewed by Rajeev on जनवरी 27, 2023 Rating: 5

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