संविधानवाद के तत्व

संविधानवाद के कतिपय तत्व होते हैं जिनका संविधान में निहित होना अथवा न होना संविधान द्वारा स्थापित सरकार को संवैधानिक व असंवैधानिक व स्मिथ ने अपनी पुस्तक ' पॉलिटिकल साइन्स चार तत्वों का उल्लेख किया है । किसी भी देश में संविधानवाद की व्यावहारिकता के लिए उस देश के संविधान में इन तत्वों का होना या किसी राज्य के संविधान में इनका न पाया जाना यह संकेत करता है कि ऐसी राजनीतिक व्यवस्था के होते हुए भी संविधानवाद का बनाता है । पिनोक एन इन्ट्रोडक्शन में संविधानवाद के प्रशासन और व्यवहारीकरण नहीं होता है । 

संविधानवाद के प्रमुख तत्व निम्न प्रकार हैं- 

( 1 ) संविधान राजनीतिक शक्ति का प्रतिबन्धक ( The Constitution as Res traint Upon Political Power ) - प्रत्येक राज्य में सरकार को संवैधानिक बनाए रखने के लिए , उसे किसी न किसी प्रकार की नियन्त्रण व्यवस्था के अधीन होना चाहिए । संविधान में सरकार की शक्तियों के सीमांकन होने पर सरकारी क्रिया सुनिश्चित हो जाती है । स्थूल रूप से यह नियन्त्रण निम्न प्रकार है- 

( i ) विधि के शासन की स्थापना , 

( ii ) मौलिक , अधिकारों की व्यवस्था , 

( iii ) राज्य की शक्तिय विभाजन , पृथक्करण व विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था तथा 

( iv ) सामाजिक बहुलवाद की परिस्थितियों को बनाये रखने की व्यवस्था । 

( 2 ) संविधान अपरिहार्य संस्थाओं की अभिव्यक्ति ( The Constitution as an Embodiment of Essential Institutions ) - प्रायः समस्त लिखित संविधानों में सरकार के प्रमुख पदाधिकारियों , उनके विभिन्न अंगों , उनकी शक्तियों और उन पर लगी सीमाओं का उल्लेख होता है । वे राज्य जो संवैधानिक तो हैं पर वहाँ लिखित संविधान नहीं है , उनमें प्रमुख सरकारी संस्थाओं की स्थापना व उनकी शक्तियों और सीमाओं का निश्चय ऐतिहासिकता से होता है । संविधान में व्यवस्थापिका , कार्यपालिका व न्यायपालिका के संगठन कार्यों व उनके पारस्परिक सम्बन्धों की स्पष्ट व्यवस्था का होना आवश्यक है । अन्यथा संविधान , संविधानवाद की अभिव्यक्ति का साधन नहीं बन सकता। 

( 3 ) संविधान राजनीतिक शक्ति का संगठन ( The Constitution as an Org aniser of Political Authority ) - संविधान सरकार की सीमाओं की स्थापना करने के साथ - साथ सरकार की विभिन्न संस्थाओं में शक्तियों का अम्बरान्तीय और लम्बात्मक वितरण भी करता है । संविधान यह व्यवस्था भी करता है कि सरकार के कार्य अधिकार युक्त रहें और स्वयं सरकार भी वैध ( Legitimate ) रहे । इसके अभाव में सरकार तथा संविधान अधिक दिन तक स्थायी नहीं रह सकते हैं । संविधान द्वारा प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक शक्ति का संगठन होना आवश्यक है । 

कोई भी संविधान राजनीतिक शक्ति का संगठन उसी अवस्था में रहता है जबकि संविधान द्वारा यह व्यवस्था हो कि सरकार के कार्य अधिकार युक्त रहें । संविधान सरकार को उसी स्थिति में अधिकारयुक्त बना सकता है जब यह सरकार के प्रतिष्ठित आधारों तथा सहमति युक्त प्रक्रियाओं का विवेचन और प्रतीक हो , अन्यथा राजनीतिक समाज परस्पर विरोधी दावों से उत्पन्न तनावों व खिचावों में जकड़ जाता है तथा सरकार की शक्ति को क्षीण करता है । 

( 4 ) संविधान विकास का निदेशक ( The Constitution as the Director of Development ) - संविधान का भविष्य में भी प्रभावी राजनीतिक शक्ति बना रहना अनिवार्य है । इसके लिए यह आवश्यक है कि संविधान राजनीतिक संघर्ष का प्रभावशाली ढंग से सीमांकन व ढाँचा स्थापित करे और भावी प्रगति के लिए विकास योजना प्रस्तुत करे । समय , परिस्थितियों और आवश्यकताओं में परिवर्तन होने के साथ - साथ सामाजिक मान्यताओं , मूल्यों व आदशों में परिवर्तन होता रहता है। 

प्रत्येक संविधान में इन नवीन आस्थाओं की व्यावहारिक प्राप्ति के लिए योजना होना आवश्यक है ताकि संविधान समाज को दिशात्मक सुस्पष्टता से युक्त रख सके । इसके अभाव में संविधान परिवर्तित और अप्रत्याशित परिस्थितियों में समाज की परिवर्तित होती हुई मान्यताओं का प्रतीक नहीं रह जायेगा तथा समाज की आधारभूत मान्यताओं से विलग हो जायेगा। ऐसा संविधान समाज की आकांक्षाओं की प्राप्ति का साधन न रहकर उसका बाधक बन जाता है । यह अवस्था संविधानवाद की समाप्ति का प्रारम्भ है।

संविधानवाद के तत्व संविधानवाद के तत्व Reviewed by Rajeev on जनवरी 29, 2023 Rating: 5

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