1878 ई . के बर्लिन काँग्रेस के कारण एवं परिणाम

बर्लिन काँग्रेस का मुख्य उद्देश्य रूस के प्रभाव को सीमित करने के लिए सनस्टीफानो की सन्धि को निष्प्रभावी करना था । तुर्की के सुल्तान ईसाइयों के कत्लेआम के तथा जुल्म के लिए मशहूर हो गये थे । उनके विरुद्ध पूरा यूरोप हो गया था किन्तु सभी अपनी समस्याओं में उलझे हुए थे । रूस ने उचित अवसर समझ कर तुर्की पर आक्रमण किया । इसके पहले कि ब्रिटेन , फ्रांस , ऑस्ट्रिया तुर्की की मदद के लिए पहुँचते रूस ने तुर्की से संधि कर ली जो सनस्टीफानो सन्धि के नाम से विख्यात है । इस संधि में अन्य बातों के अलावा विशाल बुल्गारिया राज्य का निर्माण किया गया जिसके सहारे रूस सरलता से कॉन्सटेंटिनेपुल पहुँच सकता था और इस प्रकार इस संधि द्वारा रूस का काला सागर पर अधिकार स्थापित हो जाना संभव हो जाता । रूस की इस वृद्धि को तथा सनस्टीफानो सन्धि को मानने के लिए यूरोपीय देश तैयार नहीं थे ; फलस्वरूप बर्लिन में ' ईमानदार दलाल ' बिस्मार्क की अध्यक्षता में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें आनाकानी के पश्चात् रूस को भी विवश होकर भाग लेना पड़ा । यूरोपीय इतिहास में यह सम्मेलन ' बर्लिन काँग्रेस ' के नाम से प्रसिद्ध है । 13 जुलाई 1878 ई . को सम्पन्न इस सम्मेलन में पूर्वी समस्या से सम्बन्धित निम्नलिखित निर्णय लिये गये ― 

1. रूमानिया की स्वतंत्रता स्वीकार की गयी तथा उसे दोब्रुरजा का प्रदेश भी दिया । 

2. बुल्गारिया को भी स्वतंत्र राज्य मान लिया गया किन्तु उसकी राज्य - सीमा : नदी तथा बाल्कन पर्वतमाला के मध्यवर्ती प्रदेश तक सीमित रखी गयी । 

3. रूस को अर्मेनिया का कुछ भाग तथा बेसराबिया का पूरा प्रदेश मिला। 

4. ब्रिटेन का साइप्रस पर आधिपत्य मान लिया गया । 

5. ऑस्ट्रिया को बोस्निया तथा हर्जेगोविना का प्रदेश मिला साथ ही उसे मान्टीनीग्री के बीच में संजक के नोबिबाजार नामक स्थान में सेना रखने का भी अधिकार प्राप्त हो गया ।

6. मैसीडोनिया तुर्की के अधीन रहा । 

7. ईसाईप्रधान पूर्वी रूमेलिया का प्रदेश तुर्की के अधीन अवश्य रखा गया किन्तु उसके शासन के लिए ईसाई गवर्नर प्रशासक के रूप में नियुक्त किया गया । 

8. उपर्युक्त निर्णयों के अतिरिक्त बर्लिन काँग्रेस में फ्रांस ने ट्यूनिस पर , इटलीने अलबेनिया पर , ट्रिवपोली एवं यूनान ने क्रीट , बेसली तथा मैसिडोनिया पर अपना दावा प्रस्तुत किया था , किन्तु उस समय इस पर विचार नहीं किया गया । जर्मनी ने यद्यपि किसी प्रदेश पर दावा प्रस्तुत नहीं किया था किन्तु उसकी प्रतिष्ठा वृद्धि के साथ कालान्तर में वह लाभान्वित भी हुआ । 

बर्लिन काँग्रेस के कारण :

यूरोप के आधुनिक इतिहास में बर्लिन काँग्रेस का महत्त्वपूर्ण स्थान है । पूर्वी समस्या की जटिलताओं से निपटने तथा इस क्षेत्र में शक्ति संतुलन बनाये रखने की यह एक उपयोगी व्यवस्था थी । फिर भी इतिहासकार Phillips अनेक कारणों से बर्लिन सम्मेलन को असफल मानते हैं । प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं ― 

1. तुर्की साम्राज्य के पतन से उस क्षेत्र में राजनीतिक शून्यता के खतरे से बचाव के लिए जर्जर तुर्की साम्राज्य को जीवित रखने का सम्मेलन का उद्देश्य पूरा नहीं हो सका । 

2. इसी से उत्पन्न परिणामों के प्रतिफल 1912 ई . एवं 1913 ई . में बाल्कन युद्ध तथा 1914 ई . में प्रथम विश्व युद्ध हुआ । 

3. मैसीडोनिया और रूमेलिया को पुनः तुर्की के अधीन करने का दुष्परिणाम ही बाल्कन युद्ध था । मैसीडोनिया के प्रश्न पर 1912 ई . में प्रथम बाल्कन युद्ध तथा बुल्गेरिया के क्षेत्र परिसीमन पर द्वितीय बाल्कन युद्ध 1913 ई . में हुआ । 

4. जिस तुर्की साम्राज्य को विनाश से सुरक्षा प्रदान करने के लिए बर्लिन सम्मेलन समाधान बर्लिन - सम्मेलन नहीं ढूँढ़ सका । 

5. राष्ट्रीय भावना की उपेक्षा के कारण बर्लिन सम्मेलन की सफलताएँ मात्र सतही रहीं । यूनान ने अपने स्वजातियों को अपने साथ मिलाने का आग्रह सम्मेलन में किया था । जिसके अन्तर्गत क्रीट , एपिरस , थेसली तथा मैसीडोनिया के कुछ भू - भागों के विलय की बात उसने उठायी जिसे अस्वीकार कर दिया गया । कालान्तर में यूनान के सहयोग से कीट में 1896 ई . में विद्रोह हुआ । पुनः 1905-1906 ई . के विद्रोह द्वारा क्रीट स्वतंत्र हुआ तथा 1913 ई . में यूनान के साथ संयुक्त हो गया । 

6. ऑस्ट्रिया की महत्त्वाकांक्षा वोस्निया तथा हर्जेगोविना प्रदेश को देकर तृप्त किया । गया और यही वाल्कन प्रायद्वीप की राजनीतिक अस्थिरता का कारण बना । 

7. ऑस्ट्रिया एवं सर्बिया में तनाव का श्रीगणेश बर्लिन काँग्रेस ने ही किया था जो प्रथम विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण बना । बर्लिन - सम्मेलन के परिणामों के आकलन में उपर्युक्त असफलताओं के अतिरिक्त कुछ अन्य समीकरण भी उभर कर सामने आये जैसे ―

जर्मन - रूस मनमुटाव : रूस जर्मनी के अच्छे मित्रों में था किन्तु बर्लिन सम्मेलन के अवसर पर बिस्मार्क द्वारा बार - बार दलील दिये जाने पर कि उसने एक ' ईमानदार दलाल ' की भूमिका निभायी है तथ्य से कोसों दूर था । रूसी प्रतिनिधि और विदेशमंत्री गोरकेकोव को बिस्मार्क की नीयत पर न केवल संदेह था अपितु ऑस्ट्रिया के प्रति उसके पक्षपात को ऑस्ट्रिया के प्रतिनिधि एन्ड्रेसी के साथ उसकी घनिष्ठता में देखा जा सकता था । यह सच है कि बिस्मार्क अपनी योजना के अनुसार ऑस्ट्रिया एवं जर्मनी के बीच एक संधि कराना चाहता था और इस अवसर का लाभ उठाकर अपनी योजना के लिए वह घरातल तैयार कर रहा था । गोरकेकोव ने रूस लौटकर बिस्मार्क की दोहरी नीति की खुलकर भर्त्सना की और रूस के सम्राट ने जर्मन सम्राट को पत्र लिखा कि- " यदि जर्मनी सौ वर्षों से चले आने वाले मंत्री ( बिस्मार्क ) को जारी रखना चाहता है तो उसे अपने तरीके बदलने चाहिए । " कहना न होगा कि बर्लिन सम्मेलन के कारण रूस एवं जर्मनी में तनाव तथा जर्मनी ऑस्ट्रिया में मित्रता की जो नींव पड़ी वह आने वाले दिनों में यूरोप को दो गुटों में विभाजित करने का प्रमुख कारण बनी । 

जर्मन तुर्की सम्बन्ध:  बर्लिन - सम्मेलन में जर्मनी ने कोई माँग नहीं की थी , अतः तुर्की से उसके सम्बन्ध बहुत मधुर हो गये थे । जर्मनी ने तुर्की को आर्थिक सहायता प्रदान की तथा बर्लिन - बैंक की एक शाखा कान्स्टैन्टीनेपुल में खोल दी । जर्मनी के पूँजीपतियों ने तुर्की में रेलवे लाइनों के निर्माण का कार्य भी शुरू कर दिया । यद्यपि बर्लिन - बगदाद रेल लाइन निर्माण की योजना ब्रिटेन द्वारा विरोध प्रकट के कारण रूक गयी थी पर जर्मन - तुर्की सम्बन्ध इतने अच्छे हो गये थे कि प्रथम विश्व युद्ध के समय दोनों ने मिलकर शत्रुओं का सामना किया था । इस बीच ब्रिटेन को अपनी पृथकतावादी नीति का परित्याग कर एक विरोधी गुट का निर्माण करना पड़ा जबकि जर्मनी पहले ही त्रिगुट की स्थापना कर चुका था । इस प्रकार बर्लिन - कांग्रेस के कारण यूरोप दो शक्तिशाली गुटों में विभक्त हो गया जिसमें एक का नेतृत्व ब्रिटेन तो दूसरे का जर्मनी के पास था । 

अफगानिस्तान पर आक्रमण : बर्लिन काँग्रेस का प्रभाव अफगानिस्तान पर ब्रिटेन के आक्रमण तथा अफगान के सुल्तान शेर अली के पराजय में भी देखी जाती है । अफगानिस्तान भारत के पश्चिमोत्तर सीमा पर रूस के प्रभाव में था तथा ब्रिटेन का कट्टर विरोधी था । शेर अली ने आशा की थी कि आक्रमण के समय रूस उसकी सहायता करेगा पर ऐसा नहीं हो सका और उसे गद्दी से हाथ धोना पड़ा ।

तुर्की तथा बाल्कन प्रायद्वीप की समस्याओं का कोई स्थायी हल बर्लिन काँग्रेस नहीं निकाल सका । बाल्कन क्षेत्र में छोटे - छोटे राज्यों को स्वतंत्र कर तथा सम्मेलन के घटकों द्वारा स्वयं उसके कुछ भागों पर कब्जा कर लेने के परिणामस्वरूप तुर्की साम्राज्य पूरी तरह विघटित और जर्जर हो गया । वस्तुतः बर्लिन - काँग्रेस का निष्कर्ष तुर्की साम्राज्य एवं बाल्कन प्रायद्वीप में यूरोपीय राज्यों के प्रान्तों एवं सम्पत्ति के नोच - खसोट एवं बंदरबाँट में देखा जा सकता है ।

बर्लिन सम्मेलन में रूस की भूमिका ― 1878 ई . का बर्लिन सम्मेलन पूर्वी समस्या के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है । यूरोप के कूटनीतिक इतिहास की यह एक प्रमुख घटना है । यूरोप में ऑटोमन साम्राज्य के पतन के कारण ही पूर्वी समस्या उत्पन्न हुई थी । 19 वीं शताब्दी से इसके पतन में तीव्रता आ गयी । फलस्वरूप बाल्कन क्षेत्र में रूसी साम्राज्यवाद के विस्तार को प्रोत्साहन मिला । पहले इस क्षेत्र में ब्रिटेन एवं रूस केवल दो प्रतिद्वन्द्वी थे । किन्तु 19 वीं शताब्दी के उतरार्द्ध से एक नये देश ऑस्ट्रिया के स्वार्थ आपस में टकराने लगे । रूस ने इस क्षेत्र में अपनी स्थिति को दृढ़ करने के उद्देश्य से सर्ववाद तथा राष्ट्रीयता को बढ़ावा देना प्रारंभ किया । उसने मास्को में एक विशाल सर्व सम्मेलन का आयोजन भी किया । इसका उद्देश्य बाल्कन क्षेत्र के सर्व लोगों को ऑटोमन साम्राज्य के विरूद्ध भड़काना था । ऑटोमन साम्राज्य की निरंकुशता एवं जातिवाद या राष्ट्रवाद एवं रूस के बहकावे से प्रेरित होकर 1874 ई . में बोस्निया के लोगों ने तुर्की के विरूद्ध विद्रोह कर दिया । तुर्की के सुल्तान ने निर्दयतापूर्वक इस विद्रोह को कुचलने की चेष्टा की । इस स्थिति से लाभ उठाते हुए रूस ने बोस्निया के पक्ष में हस्तक्षेप किया । जब तुर्की पर उसकी चेतावनियों का कोई असर न हुआ तो उसके विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । फ्रांस ने तुर्की को परास्त किया और उसे 1877 ई . में " सान - स्टीफानो " की संधि स्वीकार करने को बाध्य किया । 

इस संधि के द्वारा रूस ने बाल्कन प्रदेश में अपने प्रभुत्व का विस्तार किया । इस संधि के अनुसार सर्बिया , रूमानिया तथा माण्टिनिग्रो को स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया । बोस्निया , हर्जेगोविना तथा आरमेनिया के शासन में सुधार की व्यवस्था गयी । एक स्वतंत्र राज्य बुल्गारिया का निर्माण किया गया । रूस को आरमेनिया , बेसेरेविया तथा द्रोबूरजा का प्रदेश प्राप्त हुआ । तुर्की से एक बड़ी रकम हर्जाने के रूप में वसूल करने की व्यवस्था की गयी । इस प्रकार सान - स्टीफानों की संधि का अर्थ था पूर्व में तुर्की साम्राज्य का विनाश एवं रूसी साम्राज्यवाद का विस्तार परन्तु इस संधि का इंगलैण्ड एवं ऑस्ट्रिया द्वारा तीव्र विरोध किया । रूसी विस्तार भारत ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरनाक था । ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डिजरैली का विचार या कि सान- स्टीफानो की संधि के अनुसार काला सागर तक रूस का एकाधिपत्य स्थापित हो जायेगा । 

उसी प्रकार अपने स्वार्थों के कारण ऑस्ट्रिया ने भी सान - स्टीफानो की संधि घोर विरोध किया । इस संधि के कारण बाल्कन क्षेत्र में उसकी साम्राज्यवादी आकांक्षा चूर - चूर होती नजर आ रही थी । 

सान- स्टीफानो की संधि का विरोध बाल्कन प्रदेश के अन्य कतिपय राज्य भी कर रहे थे । युद्ध के समय रूमानिया ने रूस की सहायता की थी , किन्तु संधि के समय रूप ने रूमानिया की उपेक्षा की । इसलिए रूमानिया रूस से अप्रसन्न था । सर्विया , माण्टेनिग्रो एवं यूनान " विशाल बुल्गेरिया " ( Bigger Bulgaria ) के पक्ष में नहीं थे । इसी प्रकार जर्मनी भी बाल्कन प्रदेश में अपने कतिपय स्वार्थों के कारण सान - स्टीफानो की संधि का विरोधी था । किन्तु इस संधि का सबसे बड़ा आलोचक ब्रिटेन था । ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिजरैली ने कहा था कि सान - स्टीफानो की संधि ने यूरोप के मानचित्र से तुर्की साम्राज्य को गायब कर दिया है तथ रूसी विस्तार का मार्ग प्रशस्त कर दिया है । 

ऑस्ट्रिया चाहता था कि इस संधि पर पुनर ्विचार के लिए यूरोपीय राष्ट्रों का एक सम्मेलन बुलाया जाये । इंगलैण्ड ने ऑस्ट्रिया की इस माँग का समर्थन किया किन्तु रूस झुकने को तैयार न था । अंत में इंगलैण्ड ने युद्ध की धमकी दी । इंगलैण्ड के साथ ऑस्ट्रिया एवं जर्मनी आदि राज्य थे तथा रूस अभी इनसे युद्ध करने की स्थिति में नहीं था । अतः उसने यूरोपीय राष्ट्रों के एक सम्मेलन एवं सान स्टीफानो की संधि पर पुनर्विचार के प्रस्ताव को मान लिया । जो बर्लिन कांग्रेस के रूप में सामने आया।

बर्लिन सम्मेलन : 1870 ई . तक यूरोप के राजनीतिक रंगमंच पर संयुक्त जर्मनी का प्रादुर्भाव हो चुका था । विश्व में जर्मनी की महत्ता प्रदर्शित करने के उद्देश्य से बिस्मार्क ने प्रस्ताव रखा कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बर्लिन में हो । यूरोप के किसी भी राष्ट्र ने कोई आपत्ति नहीं की । सम्मेलन में रूस , तुर्की , ऑस्ट्रिया , ब्रिटेन , फ्रांस , इटली एवं जर्मनी के प्रतिनिधि उपस्थित थे । " ईमानदार दलाल " ( Honest Broker ) के रूप में बिस्मार्क ने सभापति का पद ग्रहण किया , किन्तु आदि से अंत तक सम्मेलन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिजरैली का प्रभाव छाया रहा । बिस्मार्क ने भी स्वीकार किया कि बूढ़ा यहूदी डिजरेली कमाल का आदमी है । ऑस्ट्रिया के विदेश मंत्री काउण्ट एण्ड्रेसी ने भी सम्मेलन को काफी प्रभावित किया । इस सम्मेलन में रूस ने अपने को अकेला महसूस किया । उसका समर्थन करने वाला कोई नहीं था । इस सम्मेलन का एकमात्र उद्देश्य रूस को सान स्टीफानो की संधि से प्राप्त लाभ से वंचित करना था । वस्तुतः सम्मेलन के पूर्व ही सभी महत्त्वपूर्ण बातों पर बड़े राष्ट्रों के बीच सहमति हो चुकी थी । अतः सम्मेलन अपने निर्णय पर बहुत शीघ्र पहुँच गया और 13 जुलाई 1878 ई . के विभिन्न राष्ट्रों के बीच एक संधि हो गयी जिसे " बर्लिन की संधि " कहते हैं । इस संधि के अनुसार निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गयीं : ―

1. रूस को सान - स्टीफानो की संधि से प्राप्त लाभों में कटौती की गयी । रूमानिया से बेसेरेविया प्रदेश लेकर रूस को दिया गया । इसके अतिरिक्त आरमेनिया का कुछ हिस्सा भी रूस को प्राप्त हुआ । 

2. रूमानिया की स्वतंत्रता स्वीकार की गयी । 

3. ऑस्ट्रिया को बोस्निया तथा हर्जेगोविना के प्रदेश प्राप्त हुए । 

4. ब्रिटेन को साइप्रस प्राप्त हुआ ।

5. सर्विया तथा माण्टिनिग्रो को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गयी । 

6. बुल्गेरिया को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्वीकार किया गया परन्तु उसका आकार घटा दिया गया । 

7. तुर्की के अधिकार में मैसिडोनिया तक के प्रदेश रखे गये । उसने अपनी प्रजा को • पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करने तथा क्रीट , एपिरस , थिसैली , मैसिडोनिया तथा अल्बेनिया में सुधार का आश्वासन दिया । 

इस प्रकार बर्लिन काँग्रेस में सम्मिलित होने वाले सभी राष्ट्रों को क्षेत्रीय लाभ की । आशा थी । अतः फ्रांस , इटली तथा यूनान ने कई क्षेत्रों पर अपने - अपने दावे पेश किये थे । परन्तु जर्मनी ने किसी भी क्षेत्र पर अपना दावा पेश नहीं किया था । तुर्की का सुल्तान इसके लिए जर्मनी का बहुत कृतज्ञ हुआ । इस सद्भावना का जर्मनी ने भविष्य में लाभ उठाया । 

बर्लिन व्यवस्था का मूल्यांकन : यूरोप के आधुनिक इतिहास में बर्लिन व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है । निकट पूर्व की जटिल समस्या सुलझाने की दिशा में यह एक उत्साहपूर्वक कदम था लेकिन अनेक कारणवश बर्लिन सम्मेलन को अपनी चेष्टा में सफलता नहीं मिल सकी । इतना होने पर भी पतनोन्मुख तुर्की साम्राज्य को नहीं बचाया जा सका । इस संधि में अनेक त्रुटियाँ थीं । इस संधि में राष्ट्रीयता के सिद्धांत की उपेक्षा की गयी । बोस्निया तथा हर्जेगोविना को ऑस्ट्रिया को सौंपना तथा बुल्गेरिया का अंग - भंग एवं यूनान को क्रिट से वंचित करना तथा मैसिडोनिया को तुर्की के हवाले करना अदि ऐसे कार्य थे जिनके दूरगामी परिणाम हुए । इन व्यवस्थाओं ने भविष्य युद्ध का बीजारोपण किया । इस सम्मेलन में एकत्र यूरोपीय राज्यों के प्रतिनिधियों में तुर्की साम्राज्य के विभिन्न प्रदेशों की व्यवस्था के नाम पर लूटने की योजना थी ।

1878 ई . के बर्लिन काँग्रेस के कारण एवं परिणाम 1878 ई . के बर्लिन काँग्रेस के कारण एवं परिणाम Reviewed by Rajeev on जनवरी 26, 2023 Rating: 5

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